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अ॒न्तर॑ग्ने रु॒चा त्वमु॒खायाः॒ सद॑ने॒ स्वे। तस्या॒स्त्वꣳ हर॑सा॒ तप॒ञ्जात॑वेदः शि॒वो भ॑व ॥१६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒न्तः। अ॒ग्ने॒। रु॒चा। त्वम्। उ॒खायाः॑। सद॑ने। स्वे। तस्याः॑। त्वम्। हर॑सा। तप॑न्। जात॑वेद॒ इति॑ जात॑ऽवेदः। शि॒वः। भ॒व॒ ॥१६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:16


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (जातवेदः) वेदों के ज्ञाता (अग्ने) तेजस्वी विद्वन् ! (त्वम्) आप जिस (उखायाः) प्राप्त हुई प्रजा के नीचे से अग्नि के समान (स्वे) अपने (सदने) पढ़ने के स्थान में (तपन्) शत्रुओं को संताप कराते हुए (अन्तः) मध्य में (रुचा) प्रीति से वर्त्तो, (तस्याः) उस प्रजा के (हरसा) प्रज्वलित तेज से (त्वम्) आप शत्रुओं का निवारण करते हुए (शिवः) मङ्गलकारी (भव) हूजिये ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सभाध्यक्ष राजा को चाहिये कि न्याय करने की गद्दी पर बैठ के अत्यन्त प्रीति के साथ राज्य के पालनरूप कार्यों को करे, वैसे प्रजाओं को चाहिये कि राजा को सुख देती हुई दुष्टों को ताड़ना करें ॥१६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजकर्म्माह ॥

अन्वय:

(अन्तः) मध्ये (अग्ने) विद्वन् (रुचा) प्रीत्या (त्वम्) (उखायाः) प्राप्तायाः प्रजायाः (सदने) अध्ययनस्थाने (स्वे) स्वकीये (तस्याः) (त्वम्) (हरसा) ज्वलनेन। हर इति ज्वलतो नामसु पठितम् ॥ (निघं०१.१७) (तपन्) शत्रून् सन्तापयन् (जातवेदः) जाता विदिता वेदा यस्य तत्सम्बुद्धौ (शिवः) मङ्गलकारी (भव)। [अयं मन्त्रः शत०६.७.३.१५ व्याख्यातः] ॥१६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जातवेदोऽग्ने ! यस्त्वं यस्या उखाया अधोऽग्निरिव स्वे सदने तपन् सन्नन्ता रुचा वर्तेथास्तस्या हरसा सन्तपँस्त्वं शिवो भव ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सभाध्यक्षो राजा न्यायासने स्थित्वा परमरुच्या राज्यपालनकृत्यानि कुर्यात्, तथा प्रजा राजानं सुखयन्ती सती दुष्टान् संतापयेत् ॥१६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे राजाने न्यायसिंहासनावर बसून अत्यंत प्रेमाने राज्यकारभार करावा तसे प्रजेने राजाला सुख द्यावे व दुष्टांचे ताडन करावे.